EARTH IS BEAUTIFUL

EARTH IS VERY BEAUTIFUL


Save the air, save the water, save the animals, save the plants.

These are necessary to save human being.

Save the art, save the culture, save the language.

These are necessary to the rise of human being.

Saturday, June 8, 2013

आँधियों के बीच जलना चाहता हूँ


मोम के जैसा पिघलना चाहता हूँ 
मैं तेरे अनुरूप ढलना चाहता हूँ
लड़खड़ाते पैर हैं मैं गिर न जाऊं 
थाम लो मुझको सम्हलना चाहता हूँ 
जिन्दगी है झील का खामोश पानी 
मौजे दरिया सा मचलना चाहता हूँ 
जानता हूँ कुछ नहीं है बस में मेरे 
फिर भी दुनिया को बदलना चाहता हूँ 
कोई आकर दिल में इक दीपक जला दे 
मैं  अंधेरों से निकालना चाहता हूँ 
आंच थोड़ी सी तू मुझको भी अता कर
बर्फ  की मानिन्द गलना चाहता हूँ 
एक छोटा सा हूँ दीपक मैं 'अनिल' जी 
आँधियों के बीच जलना चाहता हूँ

Thursday, June 6, 2013

दोहे


धागा लेकर भाव का, गूंथे शब्द विचार .
गांठ कल्पना की लगा ,बना लिया है हार .
पेट पीठ से लग गया , आँखों मेंहैं प्रान
ऐसे में कैसे रहे , पाप पुन्य का ध्यान.
किसने मुझको क्या दिया , सबका रखूँ हिसाब.
मैंने किसको क्या दिया , इस का नहीं जवाब .
मर्यादा को तोड़ कर , जब कर डाली भूल.
माथे पर चढने लगी, तब पैरों की धूल.
मैली चादर ओढ़ कर , सर पर बांधी पाग .
बैठे बैठे गिन रहे , इक दूजे के दाग .
ज्यों का त्यों कैसे रखे , कोई अपना रूप .
मुठ्ठी भर छाया यहाँ , आसमान भर धूप.
भरे हुए खलिहान में , लगी हुयी है आग .
उसे बुझाने की जगह , लोग रहे हैं भाग .
बोली अपनी भूल कर , सभी हो गए मूक .
चला शिकारी हाथ में , लेकर जब बन्दूक .
सम्बन्धों पर जब चढा ,खुदगर्जी का रंग .
 पौधा सूखा प्रेम का , मुरझाये सब अंग .
खुशिओं का बाज़ार है , पर ऊंचे हैं दाम .
भाव ताव में हो गयी , इस जीवन की शाम
हम से तो बच्चे भले , हैं आँखों के नूर .
छुपते माँ  की गोद में , दुःख हो जाते दूर .
कुदरत ने क्या खूब दी , बच्चों को सौगात .
फूलों सा चहरा दिया , दी फूलों सी बात.
                   अनिल कुमार जैन

Tuesday, June 4, 2013

बैठे-बैठे सब नज़ारा देखलेता हूँ



 ज़हन से होकर जब इक आंधी गुज़रती है
तब ग़ज़ल या नज़्म कागज़ पर उतरती है
बैठे-बैठे सब नज़ारा देख लेता हूँ
इस सड़क से रोज़ इक दुनिया गुज़रती है
खुद ब खुद फन की खबर हो जाती है सब को
जिस तरह से फूल की खुशबू बिखरती है
अस्ल सोने की यही तासीर देखी है
आँच पाकर और भी सूरत निखरती है
जर,जहानत, ऐशो इशरत, इल्म, फनकारी
देखिये जाकर नजर किस पर ठहरती है
हाथ रख कर हाथ पर बैठे हुए हो क्यों
कोशिशों से ही अनिल किस्मत संवरती है


गुरुदेव रविन्द्रनाथ टेगौर की कविता 'चित्त जेथा भवशून्य' का भावानुवाद


जहां है चित्त भय से मुक्त, माथा है जहां ऊंचा
जहां पर ज्ञान की गंगा है बहती मुक्त धारों में

किसी के स्वार्थ से या छुद्र मन के छुद्र भावों से
जहां धरती नहीं बंटती है टुकड़ों में, विभागों में 

जहां पर सत्य की गहराइयों से शब्द आते हैं
जहां सत्कर्म के पग-पग पे सोते फूट पड़ते हैं

जहां सन्मति की धारा, सद्विचारों की लहर उठ्ठें
जहां  तेरी कृपा हर  रूप में स्वीकार करते  हैं

प्रभू  तुमको भले  आघात पैरों का पड़े करना
मगर भारत ये जागे कल तो ऐसे स्वर्ग में जागे  

Monday, June 3, 2013

गज़ल



जाते-जाते  साँस सच ये कह गयी
सिर्फ मिट्टी ही ज़मीं पर रह गयी
क़ैद में बिस्तर की जब से हो गया
जिंदगी इक बोझ बन कर रह गयी
याद की  कश्ती थी बाकी ज़हन में
वक्त  की मझधार  में वो बह गयी
उम्र  के झोंकों से लड़ कर जिंदगी
रेत  की  दीवार  जैसी  ढह  गयी
भूख,  ज़िल्लत, गालियाँ, रुसवाइयां
जिंदगी  भी मार क्या-क्या सह गयी
देर तक  सुनते रहे थे सब अनिल
बात फिर भी कहने को कुछ रह गयी

माँ तुझे प्रणाम